Friday, December 21, 2007

बस में लड़की



भीड़
के बहाने
भीड़ से बचाकर
उसके कूल्हे पर हाथ धरता हूँ
वह सिहरती है
मेरी कनपटियां सुर्ख हो जाती हैं
बस की गति और विराम के साथ
नींद भी शामिल है मेरे षडयंत्र में
छूता हूं उसे बार-बार
छूने से बचने का ढोंग रचते हुए

सिमटती है
दुबक जाती है
खिड़की से देखती है बाहर
मोबाइल पर पढ़ती है कोई पुराना मैसेज
रिंग करके काटती है बार-बार
घूंट-घूंट पीती है गुस्सा
बस में लड़की

3 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

सही है ऐसे लोगो की कमी नही है जो समाज में इस तरह की हरकते करते देखे जा सकते हैं।
बढिया रचना है।

Swatantra said...

keep it up dear...great effort of generating duality in meaning through juxtaposing of opposite words...

i m bold...:)

सुनीता शानू said...

सही लिखा है आपने...आये दिन एसी ही हरकते देखने को मिलती है...एसे लोगों को मानसिक रूप से बीमार कहा जा सकता है...