Thursday, November 27, 2008
श्रीराम सेंटर का बुक कार्नर बंद
दिल्ली के प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र मंडी हाउस में स्थित श्रीराम सेंट का बुक कार्नर एक सप्ताह पहले अचानक बंद कर दिया गया है । वाणी प्रकाशन के अरुण महेश्वरी ने बताया कि अर्बन डिपार्टमेंट की तरफ से श्रीराम सेंटर के ट्रस्टी को एक नोटिस दिया गया था कि किताब और पत्रिकाएं बेचना कमर्शियल एक्टिविटी है इसलिए इसे शीघ्र बंद कर दिया जाए । इसलिए बुक सेंटर बंद करने का निर्णय लिया गया है । आश्चर्य की बात है कि श्रीराम सेंटर में कैंटीन तो चलायी जा सकती है लेकिन किताबों की दुकान नहीं यानी पेट पूजा तो ठीक लेकिन दिमागी भूख शांत करने की जरुरत यह व्यवस्था महसूस नहीं करती । बुक कार्नर हटने से लिखने-पढ़ने वाले मायूस हैं लेकिन शायद हम स्वीकार कर चुके हैं कि दुनिया में किताबों के लिए जगह कम होती जा रही है तभी तो दिल्ली के प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र में किताबों की दुकान का बंद होना हमारे लिए कोई खबर नहीं ।
Sunday, November 23, 2008
काश यह मौन इतना लंबा न होता
भइया को गुजरे दो महीने से ज्यादा हुए वे छह साल से ब्लड कैंसर से पीड़ित थे पर कभी बेड पर नहीं रहे जब तक जिंदा थे मजे में अपना काम-काज करते रहे हमारे बीच बचपन में भाइयों के बीच होने वाले लड़ाई-झगड़े नहीं हुए वे उम्र में मुझसे दस साल बड़े थे शायद यह एक वजह रही हो बडे भाई होने के बावजूद उन्होंने कभी बड़े भाई वाला धौंस नहीं जमाया पूरी जिंदगी में मुझे कोई ऐसा वाकया याद नहीं जब उन्होंने मुझे एक थप्पड़ भी मारा हो बचपन में बस एक बार उनसे डांट पड़ी वह भी तब जब एक बार घर छोड़कर भागा था उन्होंने मुझे बस स्टेशन पर पकड़ा बाइक पर बैठाया और डांटते हुए घर तक ले आए थे बचपन में मेरी शरारतों को मौन रह कर बरदाश्त कर लेते थे कभी मुझे कोई नसीहत देने की कोशिश नहीं की जब मैं बैडमिंटन या क्रिकेट में ईनाम पाता और घर आकर सबको दिखाता तो वे भी पास आकर मेरी बातें सुनते और मुस्कराते पर कहते कुछ नहीं वे मेरी हर शरारत को मौन रहकर बरदाश्त करते हम पास बैठते तो बहुत कम मौकों पर ही सीधे-सीधे एक दूसरे से बातें करते थे बारहवीं के बाद जब पढ़ाई के लिए घर छोड़ा तब से उनसे कुछ ज्यादा बातें होने लगी थीं जब मैं दिल्ली या इलाहाबाद से घर जाता तो वे अपने चैंबर में बैठे फाइलें निबटा रहे होते थे मैं पास जाता पैर छूता मुझे देखकर वे सिर्फ इतना भर कहते-अरे आ गए फिर पंद्रह बीस मिनट बाद घर के अंदर आते पास बैठते न कुछ कहते और न ही कुछ पूछते बस मेरी बातें सुनते रहते ऐसा नहीं कि वह बातें नहीं करते थे बाबूजी से उनकी खूब बातें होती थीं बाहर बारामदे में पड़ी चेयर पर बैठकर घंटों बातें करते कभी-कभी अम्मा परेशान हो जातीं कहतीं कि जैसे बाप-बेटे के पास गप्पें मारने के सिवाय कोई दूसरा काम ही नहीं है आज जब भइया नहीं हैं अम्मा-बाबूजी आधी रात में कभी-कभी भोर में उठकर बाहर बारामदे में पड़ी चेयर पर घंटों गुमसुम बैठे रहते हैं उन्हें यादकर रोते रहते हैं
अगली बार जब घर जाऊंगा तो भइया कहीं नजर नहीं आएंगे अपने चेंबर में भी नहीं आज दिल में कसक सी उठती है काश वे पास होते तो उनसे खूब बातें करता साथ घूमने जाता यहां दिल्ली बुलाकर उन्हें घुमाने ले जाता पर अब यह संभव नहीं हमारे बीच मौन का संवाद था पर इस बार मौन का अंतराल इतना लंबा है कि जिंदगीभर मुझे उनकी आवाज नहीं सुनाई देगी काश यह मौन इतना लंबा न होता
अगली बार जब घर जाऊंगा तो भइया कहीं नजर नहीं आएंगे अपने चेंबर में भी नहीं आज दिल में कसक सी उठती है काश वे पास होते तो उनसे खूब बातें करता साथ घूमने जाता यहां दिल्ली बुलाकर उन्हें घुमाने ले जाता पर अब यह संभव नहीं हमारे बीच मौन का संवाद था पर इस बार मौन का अंतराल इतना लंबा है कि जिंदगीभर मुझे उनकी आवाज नहीं सुनाई देगी काश यह मौन इतना लंबा न होता
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