Sunday, January 6, 2008

उसी बस वाली लड़की के तमाचे की आवाज़ होगी

बहुत दिनों ब्लोगिंग से दूर रहाइस बीच बहुत महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं जिन पर लिखने का मन हैपर सबसे पहले अपनी कविता बस में लड़की पर अमर उजाला की सजग पत्रकार शाश्वती के विचार आप तक पहुँचा रहा हूँ
बस में लड़की और विशेषकर दिल्ली के बस की लड़की की कहानी कुछ-कुछ वैसी ही है, जैसा आपने लिखा है। पूरी तरह से इसलिए नहीं क्यों कि जिस तरह ब्लू लाइन की जगह है कपैसिटी बस ले रही हैं, ठीक वैसे ही यहाँ की लड़कियाँ भी बदल रही हैं। क्यों कि बस की रेलमपेल और धक्का -मुक्की में कोई उसके कुल्हे पर हाथ रखता है, तो वह उएसे सुख में सिहरने की जगह अपने चांटे से सिहरा देने और कान लाल करने की छमता रखती हैं। मेरी इस बात को फेमिनिस्म से जोड़कर देखने की जगह महिलाओं द्वारा अपनी रक्षा खुद कर सकने, अश्लील हरकत पर समाज की चिंता किए बिना प्रत्रिक्रिया करने की बढ़ती क्षमता के साथ देखें तो बात को बेहतर समझा जा सकता है। दरअसल, बस में किसी पुरुष द्वारा धक्का देने, देह छूने की कोशिश करने से उसका मन पहले भी लिजलिजा हो जाता था, पर शायद हिम्मत जवाब दे जाती थी।
तो जनाब, अगली दफा जब दिल्ली की सड़कों पर भीड़ भरी बस में किसी लड़की की गुस्से से चीखने या तमाचा रसीद करने की आवाज़ सुने, तो हैरान न हों, वह उसी बस वाली लड़की के तमाचे की आवाज़ होगी, जो किसी पुरुष के छूने पर बस से बाहर झांकने या चुप होकर उसे सहने की बजाये करारा जवाब दे रही होगी।
जो मैं कहना चाहता हूँ-
शाश्वती यह सच है कि आज लड़कियां ज्यादा सजग हैं और सक्षम भी। उनकी मजबूती आश्वस्त करती है। पर मेरी चिंता कुछ दूसरी है।जिस समाज में ताकत सुरक्षा की गारंटी हो उसे सभ्य समाज कैसे कहा जा सकता है। सारी तरक्की के बावजूद हम ऐसे समाज में जी रहे हैं जिसे शायद अभी भी स्त्रियों का सम्मान करना सीखना है। अभी नए साल पर मुम्बई या पटना में क्या हुआ? स्त्रियों के अपमान या उन पर होने वाले अत्याचार तब तक ख़त्म नहीं होंगे, जब तक हम उनका सम्मान करना नहीं सीखते। हमें लड़कियों की तरह रोना या चूडियाँ पहन लो जैसे मुहावरे भूलने होंगे। लड़कियां बदलें और समाज की सोच भी। बात तो तब बनेगी।

6 comments:

Shastri JC Philip said...

"सारी तरक्की के बावजूद हम ऐसे समाज में जी रहे हैं जिसे शायद अभी भी स्त्रियों का सम्मान करना सीखना है।"

एकदम सही विश्लेषण !!

ghughutibasuti said...

देखिये सम्मान करें ना करें परन्तु स्त्रियों कि मनुष्य सनझें और यह याद रखें कि उनकी भी पसन्द नापसन्द हो सकती है । अपने को उनपर ना थोपें। जीयें और जीनें दें ।
घुघूती बासूती

सुनीता शानू said...

आप सही कह रहे हैं सब कुछ बदल गया है मगर कुछ भी नही बदला...कभी कभी तो लगता है यह प्रगती ही बाधक बन गई है औरत की... क्या जब पर्दे में औरत थी एसे काण्ड नही हुआ करते थे? होते थे मगर उन्हे बोलने की मनाही थी,आज औरत कंधे से कंधा मिला कर चल रही है,मगर आज उसमे एक आग भी है जो कभी-कभी एसे लोगो को जला कर खाक भी कर देती है अन्याय के खिलाफ़ आवाज उठाने की ताकत भी रखती है,मुझे नही लगता उसे किसी की जरूरत है कि कोई उसकी रक्षा करें,आज रक्षक ही भक्षक बन गये है,गुहार लगाये तो किसके सामने?जिन्हे जेल भेजा उनकी पहला जुर्म बताकर बेल हो गई तो क्या फ़ायदा? उस औरत का तो अपमान हुआ ना उसकी कीमत कौन चुकायेगा? बहुत से सवालो से घिरी है औरत...
मगर जवाब बस एक है मेरे पास उसे किसी की जरूरत नही खुद आत्मविश्वासी बनना होगा..

Dr. Sharvesh Pandey said...

आप का ये लेख उत्तम लगा

सुजाता said...

है।जिस समाज में ताकत सुरक्षा की गारंटी हो उसे सभ्य समाज कैसे कहा जा सकता है।
****
sahee kahaa

Meenu Khare said...

आपका ब्लॉग पहली बार देखा. बहुत अच्छा लगा . इसका शेड बहुत अच्छा है .