Sunday, April 6, 2008

ढलती शाम चाय की चुस्कियां और अरुण आदित्य की कविताएं

कल एक बार फिर नील पदम-१ में दोस्तो का जमावड़ा हुआ। एक सप्ताह पहले ही सबसे खुद को खाली रखने का आग्रह कर चुका था। पर क्या करें महानगर की विडंबना है कि छुटटी में भी छुटटी मुश्किल से ही मिल पाती है। इसलिए हमेशा की तरह बहुत से लोगों ने आखिरी समय में माफी मांग ली। पर अपनी वैशाली में कविता लिखने और सुनने वालों की कमी नहीं सो कविता के कुछ रसिक जुट ही गए। ढलती शाम में चाय की चुस्कयों के साथ युवा कवि अरुण आदित्य ने अपनी नयी पुरानी ढेर सारी कविताएं सुनायीं। जन विकल्प में प्रकाशित अरुण जी की इन कविताओं का रसास्वादन आप भी करें-

मैंने तो बस इतना पूछा था

अंधकूप के अंधियारे में
दोपहर शाम कहां
यूकेलिप्टस के जंगल में
महुआ जामुन आम कहां
चाहे जितना सेज सजाओ
मेरे हिस्से काम कहां
राजा हो तुम राज करो जी
हमको है आराम कहां
कौन सिरफिरा पूछ रहा है
भइया नंदीगाम कहां
मैंने तो बस इतना पूछा
छांव कहां है घाम कहां
तुम्हें लगा मैं पूछ रहा हूं
राम कहां और वाम कहां

बापू क्यों शरमाए हैं
बापू तेरी जन्मभूमि पर
राम-राज हम लाए हैं
फिर भी तुम खुश नहीं
तुम्हारे माथे पर रेखाएं हैं
हिटलर भी था चुना हुआ
हम भी चुनकर आए हैं
हमने यह सच बोल दिया तो
बापू क्यों शरमाए हैं
ना कोई मरता ना ही
कोई सकता मार
बापू कैसे भूल गए तुम
गीता का यह सार
अगर याद है तो फिर काहे
चेहरा यूं लटकाए हैं
क्यों गिनते हैं मेरे खाते
में कितनी हत्याएं हैं

3 comments:

रवीन्द्र प्रभात said...

कविता अत्यन्त सुंदर है और सारगर्भित भी ...!

Sandeep Singh said...

भाई अरुण आदित्य को बहुत-बहुत बधाई... कविताएं हम तक पहुंचाने के लिए आपको धन्यवाद।
बधाई लेना है तो अपनी वो ख़ास कविता जिसके वाचन की मैं अक्सर जिद किया करता था, पोस्ट के रूप में डालें।(स्मरणीय...आधी रात के बाद चांद को अपने कंधे पर उठा कर, दुलराता था जब द्वार का पाकड़।)

प्रदीप कांत said...

मैंने तो बस इतना पूछा
छांव कहां है घाम कहां
तुम्हें लगा मैं पूछ रहा हूं
राम कहां और वाम कहां

bahut badhiya

Pradeep & Madhu Kant