Sunday, December 9, 2007

ज़ुबान पर लगाम लगाइए हुज़ूर!

दोपहर में आफिस से निकल कर ठेले की चाय पीने जरूर जाता हूँ। नाली के किनारे खड़ा ठेला, भिनभिनाती मक्खियाँ, गाड़ियों के गुजरने से उड़ती धुल और गालियों से गूंजते वातारण में चाय की चुस्की का जो मजा है, वो आफिस की मशीन वाली चाय में कहा? उस दिन भी अपने दोस्त के साथ ठेले वाली चाय का आनंद उठा रहा था कि कानों में आवाज़ पड़ी-... दरअसल आप बहुत चूतिये हैं।
ये दो दोस्तों के बीच हो रही बातचीत का एक टुकडा था, जो मेरे कानों में पड़ा था। इतने सयंत स्वर में, कान्वेंटई लहजे और इतने आदर के साथ गाली दी गई थी कि मैं सोचने पर मजबूर हो उठा। गालियाँ हमारी जुबान के साथ इस
कदर जुडी हुई हैं कि कब मुँह से निकल जातीं हैं पता ही नहीं चलता। किसी से गुस्सा हों और गाली न दें, ऐसा हो सकता है भला! कुछ लोगों के लिए यह तकियाकलाम है, तो कुछ लोग प्यार जताने के लिये गालियों का उपयोग करते हैं, मैने एक औघड़ बाबा के बारे में सुना है,जो गालिया देकर आशिर्वाद देते थे। कभी-कभी हम मनोरजन के लिये भी गालियो का यूज करते हैं। इलाहाबाद के हिन्दु हास्टल मे जब लाईट चली जाती थी, तो दोनो ब्लाक मे गालियो का मुकाबला होता, जब तक लाईट नही आती हम एक दूसरे को गालिया देकर अपना मनोरन्जन करते थे। यहां तक कि हममें नई-नई गाली गढने की होड़ लगी रह्ती थी।
अपने देश मे तो होली जैसे त्योहार पर ही नहीं, शादियों मे भी गालियां गाने की रही है।शादियो मे तो लोग एक दूसरे के नाम की परचियां गीत गाने वाली महिलाओं के पास भेजते थे, ताकि वे उनका नाम लेकर गाली दे। जिनका नाम वे नहीं जान पातीं, उनको नीली शर्ट, लाल शर्ट वाले कह्कर गाली देती. जिन लोगों को बारात में गाली नही मिलती उन्हे लगता जैसे बारात मे उनकी खातिर ही नही की गयी। लेकिन जब मैं बात-बात पर गलियां बकता था और अब जब कि कभी-कभार मुंह से गलियां निकल ही जाती हैं। मैं अकसर सोचता हूं कि हर गाली की चपेट में कोई स्त्री या जानवर ही क्यों आता दुनिया के किसी भी देश में गालियां जानवरों के नाम और औरतों के अपमान से ही क्यों जुड़ी हुई हैं? अगर गालियां स्त्रियों का अपमान करती हों, तो क्या हमें अपनी जुबान पर लगाम लगाने की जरूरत नहीं .

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