Tuesday, December 23, 2008

बुश बुरा नहीं मानते

जब मुंतजिर जैदी ने इराकी जनता और वहां की विधवाओं की ओर से बुश पर तान कर जूते फेंके तो वह क्षण एक इतिहास में बदल गया । जब कभी भी खुद को महामहिम समझने वाले किसी ताकतवर देश का मदांध शासक किसी कमजोर देश को अपने पैरों तले कुचलने की कोशिश करेगा उसे मुंतजिर के जूते सपने में जरुर नजर आएंगे । बुश पर जूता फेंकने की घटना पर चर्चित कवि राधेश्याम तिवारी ने अपनी कविता पढ़ने के लिए दी। यह कविता आप भी पढ़िए








लोग बेवजह शंकित हैं
कि टाटा चाय की तरह
बुश बहुत कड़क हैं
न जाने वे किस बात का बुरा मान जाएं
जबकि बुश किसी बात का बुरा नहीं मानते
इराकी पत्रकार
मंतदार अल जैदी के
जूते मारने का
बुरा नहीं माना उन्होंने
जैदी के दो जूते उन पर पड़े
एक इराकी जनता की ओर से
दूसरा वहां की विधवाओं की ओर से
अपनी ओर से तो अभी
बाकी ही है जूता मारना
बुश ने फिर भी
मुस्कराते हुए कहा-
इसे मैं बुरा नहीं मानता
यह स्वतंत्र समाज का संकेत है

बुश का समाज
बहुत पहले से स्वतंत्र हो चुका है
जिसका इस्तेमाल कर उनके देश ने
दुनियाभर में बम बरसाए हैं
और बेशुमार खून बहाया
अगर कोई उनकी स्वतंत्रता को बुरा
बुरा मानता है तो
इसमें बुश का क्या दोष
लेकिन बुरा मानकर भी
वे जैदी का क्या कर लेंगे
समय जो इतिहास में
दर्ज हो चुका है
उसे वे सद्दाम की तरह
फांसी पर तो चढ़ा नहीं सकते
और न ही फिलिस्तीनी जनता की तरह
उसे इतिहास के पन्नों से
दर-ब-दर कर सकते हैं
कुछ भी कर के वे उस समय को
कैसे भूल सकते हैं
जिस समय उन्हें जूते पड़े थे
बहुत करेंगे तो जैदी का
कीमा बनाकर
अपने प्यारे कुत्तों में बांट देंगे
मंदी के इस दौर में
उन्हें इसकी जरुरत भी है
लेकिन डर है कि इससे तो जैदी
और जिंदा हो जाएगा
और लोग समझने लगेंगे कि
बुश सचमुच बुरा मान गए
जिससे जैदी अपने मकसद में
कामयाब हो जाएगा

बुश यह जानते हैं
कि आतंक का विरोध करके मरना
आतंक सहकर जिंदा रहने से
अधिक कीमती है
इसलिए जूते मारने का वे
कभी बुरा नहीं मानेंगे

Friday, December 19, 2008

सृजन को बंदूक चाहिए

सृजन मेरे भांजे का नाम है । गोरखपुर में रहता है । उम्र लगभग तीन साल । ठीक से बोलना नहीं आता । लेकिन जब भी फोन पर बात होती है मुझसे कुछ न कुछ फरमाइश जरुर करता है । कभी कपड़े खिलौने चश्मा घड़ी आदि । पिछले कुछ दिनों से उसके मांगपत्र में एक नई चीज जुड़ गई है--बंदूक । जब पहली बार उसने बंदूक की मांग की तो मैंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया । लेकिन जब दूसरी-तीसरी बार उसने बंदूक का नाम लिया तो मैंने पूछ ही लिया कि वह बंदूक का क्या करेगा । उसने कहा आतंकवादियों को मारुंगा । कहीं बाबा रामदेव को पढ़ा कहते हैं तिल-तिल कर मरने से अच्छा है आतंकवादियों से लड़कर मरा जाए । क्या बच्चा क्या बाबा सभी के दिलों पर मुंबई ने के आतंकी हमलों ने गहरा असर डाला है । टीवी पर हमले की सीधी कार्रवाई देखने वाले अधिकतर लोगों की यही इच्छा है । हम सभी बहुत उद्वेलित हैं कुछ कर गुजरना चाहते हैं समस्या को जड़ से उखाड़ फेंकने पर आमादा हैं पर मन में कुछ सवाल उठते हैं यह पहली बार नहीं है जब पूरे देश को शर्मसार होना पड़ा है। इससे पहले कंधार विमान अपहरण संसद पर हमला कारगिल जैसे कई कांड हो चुके हैं। सीरियल बम ब्लास्ट तो जैसे रोज की घटनाए हैं । पर यह हमारी स्मृति इतनी ‌क्षीण हो गई है कि कुछ ही दिनों के बाद हम हर घटना को भूल जाते हैं। दूसरी बात कि हर घटना पर हम इतने उन्मादी क्यों होने लगे हैं । कोई टिप्पणी पोस्टर कोई हमला राष्ट्रीय उन्माद में क्यों बदल जाता है । क्यों नेताओं की सियासत का शिकार होकर कोई बच्चा पिस्तौल लेकर बेस्ट की बस पर चढ़ जाता है । बहरहाल मुंबई हमलों के बाद अमिताभ बच्चन सिरहाने बंदूक रखकर सोए और सृजन को बंदूक की जरुरत है । क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है । क्या हम अपनी सीमाओं सेना पुलिस और गुप्तचर व्यवस्था को इतना चाक चौबंद नहीं कर सकते कि कोई परिंदा भी पर न मार सके । क्या हम विदेश नीति और कूट नीति ककहरा भी नहीं जानते । कहने को तो हम परमाणु संपन्न देश हैं लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंच पर हमारी आवाज अनसुनी क्यों है । क्या हम अपनी सरकार से कोई आशा करें । शायद यह मूर्खता ही होगी। अफसोस देश की गद्दी पर ऐसा प्रधानमंत्री है जिसके पास जनता की ताकत ही नहीं । एक ऐसा व्यक्ति जिसने झूठ बोल कर पूर्वोत्तर से राज्स सभा की सदस्यता ली हो और किसी की दया पर प्रधानमंत्री बन बैठा हो उसकी आवाज में वो गरिमा और ताकत नहीं आ सकती जो एक महान जनतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री में होनी चाहिए । प्रधानमंत्री को तो छोड़िए आज किस नेता में वह ओज आत्मबल नैतिकता और ईमानदारी है। शायद इसीलिए ताज के बाद हमने नेताओ को गालियां देना शुरु कर दिया । पर गालियां देने से क्या होगा जाति धर्म क्षेत्र के नाम पर हमी तो चुनते हैं उन्हे । यह हमारी ही तो सोच है कि जो कानून को धता बताकर हमारा गलत सही काम न करा सके वह नेता कैसा । हमने ही तो संसद और विधान सभाओं में अपराधियों को बिठा रखा है । गलती उनकी भी है जो कंधे उचकाकर बोल देते हैं कि राजनीति गंदी है । हम भूल जाते हैं कि दुनिया के अधिकतर मसलों का हल राजनीति से ही संभव है ।
बहरहाल सृजन को आतंकवादियों से लड़ने के लिए बंदूक चाहिए । क्या वाकई कोई दूसरा रास्ता नहीं है ।

Thursday, December 11, 2008

बेरोजगार लड़के

वे मिल जाएंगे कहीं भी
झुंड में बैठे हुए
किसी चाय की दुकान पर
या कहीं भी उस जगह
जहां बैठा जा सके देर तक
अल्हड़ हवाओं की तरह
वे हंसते हैं बेफिक्र हंसी
बोलते-बोलते अकसर
देखने लगते है शून्य में
बुदबुदाते हैं
हवाओं में टांकते हैं गालियां
और हाथ में चाय की गिलास थामे
बांचते रहते हैं
गली की लड़की से लेकर
लादेन तक की कुंडली
उनके पास
सूचना और अफवाहों का
अथाह भंडार है
वे अफवाहों की सचाई में यकीन करते हैं
सच सी लगें अफवाहें
इसलिए
उनमें कुछ अफवाहें और भी जोड़ देते हैं
उन्हें कभी भी आवाज लगाई जा सकती है
मंगवाई जा सकती है बाजार से सब्जी
वे जमा करा सकते हैं पानी-बिजली का बिल
मरीज को पहुंचाना हो अस्पताल
तो उठाया जा सकता है उन्हें आधी रात में
वे अच्छे बच्चे हैं
किसी काम के लिए ना नहीं करते
ना करने पर कहा जा सकता है उन्हें
बेकार और आवारा

Thursday, November 27, 2008

श्रीराम सेंटर का बुक कार्नर बंद


दिल्ली के प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र मंडी हाउस में स्थित श्रीराम सेंट का बुक कार्नर एक सप्ताह पहले अचानक बंद कर दिया गया है । वाणी प्रकाशन के अरुण महेश्वरी ने बताया कि अर्बन डिपार्टमेंट की तरफ से श्रीराम सेंटर के ट्रस्टी को एक नोटिस दिया गया था कि किताब और पत्रिकाएं बेचना कमर्शियल एक्टिविटी है इसलिए इसे शीघ्र बंद कर दिया जाए । इसलिए बुक सेंटर बंद करने का निर्णय लिया गया है । आश्चर्य की बात है कि श्रीराम सेंटर में कैंटीन तो चलायी जा सकती है लेकिन किताबों की दुकान नहीं यानी पेट पूजा तो ठीक लेकिन दिमागी भूख शांत करने की जरुरत यह व्यवस्था महसूस नहीं करती । बुक कार्नर हटने से लिखने-पढ़ने वाले मायूस हैं लेकिन शायद हम स्वीकार कर चुके हैं कि दुनिया में किताबों के लिए जगह कम होती जा रही है तभी तो दिल्ली के प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र में किताबों की दुकान का बंद होना हमारे लिए कोई खबर नहीं ।

Sunday, November 23, 2008

काश यह मौन इतना लंबा न होता

भइया को गुजरे दो महीने से ज्यादा हुए‌‌ वे छह साल से ब्लड कैंसर से पीड़ित थे‌‌ पर कभी बेड पर नहीं रहे‌‌ जब तक जिंदा थे मजे में अपना काम-काज करते रहे‌ हमारे बीच बचपन में भाइयों के बीच होने वाले लड़ाई-झगड़े नहीं हुए‍ वे उम्र में मुझसे दस साल बड़े थे‌ शायद यह एक वजह रही हो‌ ‌ बडे भाई होने के बावजूद उन्होंने कभी बड़े भाई वाला धौंस नहीं जमाया ‌‌ पूरी जिंदगी में मुझे कोई ऐसा वाकया याद नहीं जब उन्होंने मुझे एक थप्पड़ भी मारा हो‌‌ बचपन में बस एक बार उनसे डांट पड़ी वह भी तब जब एक बार घर छोड़कर भागा था ‌ उन्होंने मुझे बस स्टेशन पर पकड़ा बाइक पर बैठाया और डांटते हुए घर तक ले आए थे‌ बचपन में मेरी शरारतों को मौन रह कर बरदाश्त कर लेते थे‌ कभी मुझे कोई नसीहत देने की कोशिश नहीं की ‌जब मैं बैडमिंटन या क्रिकेट में ईनाम पाता और घर आकर सबको दिखाता तो वे भी पास आकर मेरी बातें सुनते और मुस्कराते पर कहते कुछ नहीं‌ ‌ वे मेरी हर शरारत को मौन रहकर बरदाश्त करते‌ हम पास बैठते तो बहुत कम मौकों पर ही सीधे-सीधे एक दूसरे से बातें करते थे‌ बारहवीं के बाद जब पढ़ाई के लिए घर छोड़ा तब से उनसे कुछ ज्यादा बातें होने लगी थीं‌ जब मैं दिल्ली या इलाहाबाद से घर जाता तो वे अपने चैंबर में बैठे फाइलें निबटा रहे होते थे‌ मैं पास जाता पैर छूता मुझे देखकर वे सिर्फ इतना भर कहते-अरे आ गए‌ फिर पंद्रह बीस मिनट बाद घर के अंदर आते पास बैठते न कुछ कहते और न ही कुछ पूछते‌ बस मेरी बातें सुनते रहते‌ ऐसा नहीं कि वह बातें नहीं करते थे‌ बाबूजी से उनकी खूब बातें होती थीं‌ बाहर बारामदे में पड़ी चेयर पर बैठकर घंटों बातें करते ‌कभी-कभी अम्मा परेशान हो जातीं‌ कहतीं कि जैसे बाप-बेटे के पास गप्पें मारने के सिवाय कोई दूसरा काम ही नहीं है‌‌ ‌ आज जब भइया नहीं हैं अम्मा-बाबूजी आधी रात में कभी-कभी भोर में उठकर बाहर बारामदे में पड़ी चेयर पर घंटों गुमसुम बैठे रहते हैं उन्हें यादकर रोते रहते हैं‍
अगली बार जब घर जाऊंगा तो भइया कहीं नजर नहीं आएंगे ‌ अपने चेंबर में‌ भी नहीं ‌ आज दिल में कसक सी उठती है काश वे पास होते तो उनसे खूब बातें करता‌ साथ घूमने जाता‌ यहां दिल्ली बुलाकर उन्हें घुमाने ले जाता पर अब यह संभव नहीं‌‌‌‌ हमारे बीच मौन का संवाद था‌ पर इस बार मौन का अंतराल इतना लंबा है कि जिंदगीभर मुझे उनकी आवाज नहीं सुनाई देगी‌ काश यह मौन इतना लंबा न होता‌

Sunday, September 7, 2008

औरंगजेब की नजर में इल्म

धारणा या छवियां जिनके लिए सबसे ज्यादा नुकसानदेह होती हैं वे हैं हमारे इतिहास पुरुष। जब हम उन्हें किसी खास नजरिए से देखने के आदी हो जाते हैं तो उनके व्यक्तित्व के कुछ उजले पक्षों को जानने से महरुम हो जाते हैं। औरंगजेब को ऐसे ही शासकों में शुमार किया जा सकता है। इतिहास में उसे एक कटटर शासक के रुप में याद करता है लेकिन उसने अदब और तालीम के बारे में जो बातें कहीं हैं वे आज की दुनिया में भी महत्व रखती हैं। उसके दरबार में रहने का अवसर पाने वाले फ़्रांसीसी यात्री बरनियर ने एक घटना का जिक किया है जो शिक्षा संबंधी उसके विचारों पर प्रकाश डालती है। बरनियर ने लिखा है कि औरंगजेब का गुरु मुललासालह इस आशा से उसके दरबार में आया कि औरंगजेब उसे दरबार में अमीर बना देगा । पर अपनी बहन रोशनआरा बेगम की सिफारिश के बावजूद औरंगजेब ने तीन महीने तक उसकी खबर तक न ली। परंतु जब वह उसे दरबार में देखते-देखते तंग आ गया तो उसे एकांत में दरबार में उपस्थित होने का आदेश दिया और मुल्ला जी से कहा कि- आप चाहते हैं कि हम आपको दरबार के उमरा में शामिल कर लें लेकिन क्या आप इसके काबिल हैं। फरमाइये तो सही कि आपकी तालीम से मुझे कौन सी वाकफीयत हासिल हुई है---क्या मुझ जैसे शख्स के उस्ताद को लाजिम न था कि दुनिया की हरएक कौम के हालात से मुझे मुत्तिला करता ---मुझको इलम तारीख ऐसी सिलसिलेवार पढाता कि मैं हर एक सलतनत की बुनियाद असबाब तरककी और उन वाकयात से वाकिफ हो जाता जिनके वायस उनमें इनकलाबात होते रहते हैं----बावजूद कि बादशाह को हमसाया कौमों की जबानों से वाकिफ होना जरुरी है आपने मुझको अरबी पढना सिखाया। इस जबान को सीखने में मेरी उमर का एक बडा हिससा जाया हुआ। कया नमाज सिरफ अरबी के जरिए ही अदा हो सकती है और बडी-बडी इलमोहुनर की बातों को जानना क्या अरबी के जरिए ही हो सकता है---आप मुझे वे बातें सिखाते जिससे जेहन इस काबिल हो जाता है कि बगैर सही दलील के किसी बात को तसलीम नहीं करता---वह सबक पढाते जिससे इंसान की तबीयत ऐसी हो जाती कि दुनिया के इंकलाबात का उसपर कुछ भी असर नहीं होता है और वह तरककी और तनजजुली की हालत में एक सा ही रहता है। क्या आप नहीं जानते थे कि शहजादों को इतनी बात जरुर सिखानी चाहिए कि उनकी रियाया से और रियाया को उनके साथ किस तरह का बरताव करना लाजिम है---बस अपने गांव को चले जाइए और अब से कोइ न जाने कि आप कौन हैं और आपका क्या हाल है।

Sunday, August 24, 2008

बारह साल के साकी

मैं शराब नहीं पीता लेकिन शराब को जहर भी नहीं मानता। पीने-पिलाने वालों की सोहबत मुझे अच्छी लगती है। मेरे साथ बैठता हूं। सलाद वगैरह बनाने में मदद करता हूं और कोल्ड डि्क का गिलास हाथों में लेकर उनका साथ भी देता हूं। लेकिन इसके बावजूद मेरा मानना है कि यह ऐसी चीज भी नहीं है कि इसके बिना जिंदगी अधूरी हो। खासतौर पर बच्चों को तो इससे दूर ही रखा जाना चाहिए। लेकिन बस से लखनउ जाते समय समय मैंने साहिबाबाद बस अडडे में एक बच्चे को बीयर बेचते हुए भी देखा था। वैशाली में जहां मैं रहता हूं मैंने बच्चों को ही साकी की भूमिका निभाते हुए देखा है। शाम ढलते ही लोग माडल मधुशाला के किनारे अपनी गाडियां खडी कर देते हैं। दस बारह साल के बच्चे उनकी गाडियों को घेर लेते है। फिर एसी गाडियों में बैठे-बैठे ही बच्चों से मनपसंद डिंक की बोतल मंगाई जाती है। कार में मधुर संगीत के साथ शराब का आनंद उठाने के बाद लोग बच्चों को टिप और खाली बोतलें थमा कर घर वापस लौट जाते हैं। आप राहत महसूस कर सकते हैं ये हमारे घरों के बच्चे नहीं होते। ये वे बच्चे हैं जिनहें स्ट्रीट चाइल्ड कह कर हम ध्यान ही नहीं देते। पर यह राहत की बात नहीं। आप माने न माने ये बच्चे भी हमारे ही समाज का हिस्सा हैं। अगर हम इन बच्चों को स्कूल नहीं भेज सकते इनके खाने-पीने का इंतजाम नहीं कर सकते तो इनके हाथों में बोतल थमाने का हक हमें किसने दिया है।

Monday, August 11, 2008

बनाते हैं चैनल वाले

कुछ दिन हुए सैलून में कटिंग करा रहा था। मेरे खतों को ठीक करने के लिए नाई ने अपनी आंखें मेरे गरदन पर टिका रखी थी। उसने एक हाथ से मेरे सिर को जोर से पकड रखा था ताकि मैं अपना सिर हिलाकर उसके काम में बाधा न पहुंचा सकूं। सिर झुकाए हुए मैं सैलून में रखे टीवी की आवाज भर सुन पा रहा था। न्यूज चैनल पर एलियंस के बारे में कोई प्रोग्राम आ रहा था। एंकर ने चीखते हुए कहा- घर से निकलने से पहले एक बार आसमान की ओर जरूर देख लें। वह शायद आसमान से उतरने वाले किसी खतरे के बारे में आगाह कर रहा था। एंकर की इस आवाज के साथ ही मेरे कानों को एक दूसरी आवाज भी सुनाई दी- साले चूतिया बनाते हैं। यह मेरे नाई की आवाज थी। मैंने कहा जब चूतिया बनाते हैं तो चैनल देखते ही जरूर क्यों हो मैंने पूछा। उसने कहा रशीद भाई के अलावा कोई नहीं देखता। रशीद भाई दुकान के मालिक होंगे। इसलिए वह जो देखेंगे बेचारों को देखना पडता होगा। आज अखबार में पढा प्रोफ़ेसर यशपाल कह रहे थे कि न्यूज चैनलों पर दूसरी दुनिया और एलियंस आदि के बारे में बेसिर पैर की बातें दिखाई जाती हैं मैंने तो इस तरह के डिसकशन में जाना ही छोड दिया है। यशपाल अगर लेमैन की भाषा में बोलते तो ठीक वही कह रहे होते जो उस नाई ने कहा था। जाहिर है अब न्यूज चैनलों के प्रोग्राम के बारे में नाई और वैज्ञानिक की राय एक जैसी है। कुछ दिन बाद रशीद भाई जैसे लोग भी इन चमत्कारिक कहानियों से उब ही जाएंगे। शायद तब यह मजाक बंद हो लेकिन तबतकमीडिया की छवि पर पर जो बटटा लग चुका होगा उसकी भरपाई कैसे होगी।

Saturday, April 26, 2008

उगते हुए सूरज को आखिरी बार कब देखा था

फूल तो आप को भी अचछे लगते होंगे। गेंदा गुलाब जूही चंपा चमेली कमल ---दिमाग पर जोर डालें तो शायद कुछ नाम और याद आ जाएं। इनमें से किसी फूल को डाली पर झूमते हुए आखिरी बार कब देखा था आपने।फूलों को छोड़िए चिड़ियों की बातें करते हैं- कौवा कबूतर गौरैया बाज तोता मैना थोड़ी कोशिश करें तो कुछ नाम और याद आ सकते हैं पर यह तो बताइए कि इनमें से किसी पंछी की आवाज आखिरी बार कब सुनी थी।अब यह मत कह दीजिएगा कि पेड़ों को पहचानना मुशिकल हो सकता है पर उनके नाम से तो परिचित ही हैं। चलिए देखते हैं कितने पेड़ों के नाम ले सकते हैं आप---- आम जामुन पीपल महुआ पीपल बरगद कटहल वाकई बहुत से नाम जानते हैं आप पर यह तो बताइए किसी पेड़ की छांव में बैठ कर आखिरी बार कब सुसताए थे आप।जरा जोर डालिए दिमाग पर और बताइएउगते सूरज को आखिरी बार कब देखा थारात में चांद देखने की फुरसत कब मिली थी आपकोधरती को कब छुआ था आखिरी बारनदी या पोखर में कब लगाई थी डुबकी
धरती से खतम होते जा रहे हैं पेड पौधे नदी तालाब यह कभी सोचा ----तब तो कम से कम एक पेड़ जरूर लगाया होगा आपने

Sunday, April 6, 2008

ढलती शाम चाय की चुस्कियां और अरुण आदित्य की कविताएं

कल एक बार फिर नील पदम-१ में दोस्तो का जमावड़ा हुआ। एक सप्ताह पहले ही सबसे खुद को खाली रखने का आग्रह कर चुका था। पर क्या करें महानगर की विडंबना है कि छुटटी में भी छुटटी मुश्किल से ही मिल पाती है। इसलिए हमेशा की तरह बहुत से लोगों ने आखिरी समय में माफी मांग ली। पर अपनी वैशाली में कविता लिखने और सुनने वालों की कमी नहीं सो कविता के कुछ रसिक जुट ही गए। ढलती शाम में चाय की चुस्कयों के साथ युवा कवि अरुण आदित्य ने अपनी नयी पुरानी ढेर सारी कविताएं सुनायीं। जन विकल्प में प्रकाशित अरुण जी की इन कविताओं का रसास्वादन आप भी करें-

मैंने तो बस इतना पूछा था

अंधकूप के अंधियारे में
दोपहर शाम कहां
यूकेलिप्टस के जंगल में
महुआ जामुन आम कहां
चाहे जितना सेज सजाओ
मेरे हिस्से काम कहां
राजा हो तुम राज करो जी
हमको है आराम कहां
कौन सिरफिरा पूछ रहा है
भइया नंदीगाम कहां
मैंने तो बस इतना पूछा
छांव कहां है घाम कहां
तुम्हें लगा मैं पूछ रहा हूं
राम कहां और वाम कहां

बापू क्यों शरमाए हैं
बापू तेरी जन्मभूमि पर
राम-राज हम लाए हैं
फिर भी तुम खुश नहीं
तुम्हारे माथे पर रेखाएं हैं
हिटलर भी था चुना हुआ
हम भी चुनकर आए हैं
हमने यह सच बोल दिया तो
बापू क्यों शरमाए हैं
ना कोई मरता ना ही
कोई सकता मार
बापू कैसे भूल गए तुम
गीता का यह सार
अगर याद है तो फिर काहे
चेहरा यूं लटकाए हैं
क्यों गिनते हैं मेरे खाते
में कितनी हत्याएं हैं

Sunday, March 23, 2008

बहरों को सुनाने के लिए...

अत्याचारी ब्रिटिश सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा बम के साथ जो परचा फेंका गया था वह ब्रिटिश सरकार द्वारा किए जा रहे राष्ट्रीय दमन और अपमान की स्थिति का बयान तो करता ही है इन देशभक्तों की क्रान्ति विषयक अवधारणा के बारे में संकेत देता है। प्रस्तुत है पार्लियामेंट में फेंके गए परचे का हिंदी यह हिंदी अनुवाद

हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना
सूचना
बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज की जरूरत होती है प्रसिद्ध फ़्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलियां के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।
पिछले दस सालों में ब्रिटिश सरकार ने शासन सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है उसकी कहानी दोहराने की आवशयकता नहीं है और न ही हिंदुस्तानी पार्लियामेंट पुकारे जाने वाली इस सभा ने भारतीय राष्ट्र के सिर पर पत्थर फेंककर उसका जो अपमान किया है उसके उदाहरणों को याद दिलाने की जरूरत है। यह सर्व विदित और स्पष्ट है। आज फिर जब लोग साइमन कमीशन से कुछ सुधारों के टुकडों की आशा में आंखें फैलाए हैं और इन टुकडों के लोभ में आपस में झगड रहे हैं विदेशी सरकार सार्वजनिक सुर‌‌‌क्षा विधेयक और औ‍द्यौगिक विवाद विधेयक के रूप में अपने दमन को और भी कडा करने की कोशिश कर रही है। इसके साथ ही आने वाले अधिवेशन में अखबारों द्वारा राजद्रोह रोकने का कानून जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करने वाले मजदूर नेताओं की अंधाधुंध गिरफतारियां यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैये पर चल रही है। राष्ट्रीय दमन और अपमान की इस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में अपने उत्तरदायित्व को गंभीरता से महसूस कर समाजवादी प्रजातंत्र संघ ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है। इस काम का प्रयोजन है कि कानून का यह प्रहसन समाप्त कर दिया जाए। विदेशी शोषक नौकरशाही जो चाहे करे परंतु उसकी वैधानिकता की नकाब फाड देना आवशयक है।
जनता के प्रतिनिधियों से हमारा अनुरोध है कि वे इस पार्लियामेंट के पाखंड को छोडकर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के खिलाफ क्रान्ति के लिए तैयार करें। हम विदेशी सरकार को यह बतला देना चाहते हैं कि हम सार्वजनिक सुर‌‌‌क्षा विधेयक और औ‍द्यौगिक विवाद विधेयक के दमनकारी कानूनों और लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं।
हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं हम ऐसे उज्ज्वल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें हर व्यक्ति को पूरी शांति और स्वतंत्रता का अवसर मिल सके। हम इंसान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परंतु क्रान्ति द्वारा सबको समान स्वतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त करने के लिए क्रान्ति में कुछ न कुछ रक्तपात जरूरी है।
इंकलाब जिंदाबाद हस्ताक्षर बलराज
कमांडर इन चीफ

साभारःराजकमल प्रकाशन
( ८ अप्रैल सन १९२९ को असेंबली में बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा फेंके गए परचे का हिंदी यह हिंदी अनुवाद राजकमल पेपर बैक्स द्वारा प्रकाशित पुस्तक भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज से ली गयी है।)

आन के दुआर क चिरई

शादी करके बीवी के साथ दिल्ली वापस आया तो जिंदगी कुछ बदली सी लगी। सुखद और सुविधाजनक। घर बिलकुल साफ-सुथरा चीजें सलीके से रखी हुईं। समय पर पानी चाय खाना। अटपटा सा लगता है इतना व्यवस्थित होना। इतने सलीके से रहने की अपनी आदत रही नहीं। जब चाहा खाया जहां गए वहीं सो रहे। मन किया तो शेविंग की या वैसे ही घूमते रहे। अब मेरी हर चीज पर किसी की नजर होती है। कई बार जो बातें मेरे लिए साधारण सी होती हैं वह पत्नी की नजर में महत्वपूर्ण। कई बार उसके साथ रहते या चलते हुए सोचता हूं वह मेरा इतना ध्यान क्यों रखती है जबकि साथ रहने के बावजूद कई बार वह मुझे अजनबी सी लगती है। क्या मैं उसे अजनबी जैसा नहीं लगता। जबकि शादी के बाद वह खुद भी बदल गई है। एक दिन उसने मुझसे कहा कि जब वह आईना देखती है कभी-कभी खुद को देखकर लगता है कि अरे यह कौन है। सिंदूर बिंदी और नथ ने उसका चेहरा ही बदल दिया है। उसने बताया कि शादी से पहले जब वह अपने गांव आयी थी तो लोगों के कहने पर उसे नाक छिदवाना पडा था।शादी के बाद भी तो बहुत कुछ बदला होगा उसकी जिंदगी में। पर वह अपनी खुशी से जयादा मेरी खुशी की चिंता करती है। और कभी-कभी खुद उदास नजर आती है। घर से दिल्ली आते समय मां ने हम दोनों को अलग-अलग बुलाकर कुछ बातें कहीं थीं। उससे क्या कहा मैं नहीं जानता लेकिन मुझे कहा कि- देखो इसे कभी डांटना मत। न तो इसके सामने किसी और पर गुससा होना। घर के कामों में मदद करना। अपने मां-बाप घर परिवार को छोडकर तुम्हारे साथ रहने आयी है इसको खुश रखना अब तुम्हारी जिममेदारी है। ई आन के दुआर क चिरई ह पोसात-पोसात पोसाई। मां की बातों पर अमल करने की कोशिश करता हूं। फिर भी वह कभी-कभी उदास हो जाती है। पूछता हूं क्या हुआ तो टाल जाती है पर उसकी आंखों की नमी सब कह जाती है। मां का कहना याद आ जाता है आन के दुआर क चिरई।

Monday, February 4, 2008

यह शूटरों का शहर नहीं है भाईसाब

आजमगढ़-२
बात-मुलाकात में किसी को पता चलता है कि मैं आजमगढ का रहने वाला हूं लोग बोल पडते हैं अरे अबू सलेम का आजमगढ़। चूंकि आजमगढ़ का हूं इसलिए यह पहचान बेचैन कर देती है। कोई आदमी यह तय करने की कोशिश कर सकता है कि उसकी पहचान कया हो लेकिन जगहें यह काम नहीं कर पातीं। वरना आजमगढ़ को कभी गवारा नहीं होता कि उसे अबू सलेम के नाम से जाना जाए। अगर किसी जगह को उनके रहने वालों के नाम से ही पहचाने की मजबूरी हो तो आजमगढ़ को अबू सलेम के नाम से नहीं अललामा शिबली नोमानी के नाम से पहचाना जाना चाहिए। हम आजमगढ़ को हिंदी खड़ी बोली का पहला महाकावय लिखने वाले अयोधया सिंह उपाधयाय हरिऔध- राहुल सांकृतयायन- कैफी और शबाना आजमी से लेकर हिंदी आलोचक मलयज आदि के नाम से कयों नहीं पहचानते। आजमगढ़ की पहचान उसकी उरदू पुसतकालय बलैक पाटरी या मुबारकपुर के उन हुनरमंद जुलाहों से कयों नहीं की जाती जो दुनियाभर में मशहूर बनारसी साडियां बनाने का काम करते हैं। आजमगढ़ की पहचान बताते समय पाकिसतान के जनरल रह चुके असलम बेग और टिनिडाड के परधानमंतरी और पेसिडेंट रहे कासिम उतीम के पुरखों को भी तो याद किया जा सकता है। आजमगढ़ की पहचान टीवी पर अंताछरी बनाकर मशहूर हुए गजेंदर सिंह फिलम डाइरेकटर राजेश सिंह और दुनियाभर में फैले वे तमाम लोगों कयों नहीं हो सकते जो गुमनाम ही सही पर मेहनत मजूरी करके ईमानदारी की रोजीरोटी कमा खा रहे हैं।अभी पिछले दिनों जब मैं आजमगढ़ आया तो एक पंदरह साल के बचचे को छोटी सी टू सीटर कार चलाते देखकर दंग रह गया। चंदन नाम के इस बचचे ने टाटा की नैनो आने से बहुत पहले ही अपनी कार फेम को आजमगढ़ की सड़कों पर उतार दिया था। उसने सकूटर के कल पुरजों को जोड़कर पचीस हजार कीमत वाली यह कार बनाई है जो एक लीटर में चालीस किलोमीटर की दूरी तय करती है। कया आपने चंदन का नाम सुना है।आप आजमगढ़ को चंदन के नाम से कयों नहीं पहचानते।

Friday, February 1, 2008

आज़मगढ़-1

आज़मगढ़! बहुत बदल गया यह शहर. हमारे बचपन मे यह हरा-भरा और खूबसूरत शहर हुआ करता था. पर आज़कल इस शहर में भीड़ बढ़ती जा रही है.जब भी घर जाता हूं, इसे और भी शोरगुल और भीड़ से भरा हुआ पाता हूं. इस बार जब रिक्शे पर बैठकर स्टेशन से घर की ओर चला, तो सड़क पर कुछ ज्यादा ही शोरगुल दिखा.टौंस पर बने पुल पर नए किस्म की लाइटें लगी हुई थीं. उस बड़े से मैदान जो अग्रेज़ो के ज़माने में पोलो ग्राउड हुआ करता था, में चल रहा आज़मगढ़ महोत्सव समाप्त हो चुका था. गिरजाघर चौराहा का नाम अब न्याय चौराहा हो चुका था. आज़मगढ़ महोत्सव इस बार काफ़ी भव्य रहा और हंगामेखेज भी. विवेकानंद की तस्वीर स्टेज पर रखने और स्कूली बच्चों द्वारा खेले जा रहे नाटक में सीता के जींस-टाप पहनने को लेकर खूब बवाल मचा. देश के दूसरे हिस्सों की तरह यहां भी लोग धार्मिक रूप से काफ़ी संवेदनशील हो चुके हैं. हर बार की तरह इस बार भी टौंस नदी के घाट पर दोस्तों के साथ देर तक बैठा रहा. नाव की सैर की. नदी में नहाना भी चाहता था लेकिन अब टौंस का पानी इतना गदा हो चुका है कि नहाने लायक नहीं रहा. टौंस गंदी और छिछ्ली होती जा रही है. हमारे बचपन में टौंस के किनारे खेती होती थी अब इसके किनारे पर घर बनते जा रहे हैं. यही हाल रहा तो कुछ सालों में यह नदी गंदे नाले में बदल जाएगी. काश हम अपनी नदी तालाबों के प्रति भी थोड़े संवेदनशील हो पाते.

Saturday, January 26, 2008

अरे भौजी ऊख छीलत हईं

आज़मगढ़ से दिल्ली में पढाई करने आया और यहीं रोटी- रोज़गार का जुगाड़ हो गया। पर अपने घर- गांव की याद तो कचोटती ही रहती है। घर जाने का मौका मिले तो मन उमंग से भर जाता है। इस बार घर जाने का प्लान तो बहुत पहले ही बन गया था, पर आदत के अनुसार टिकट कटवाने में आलस कर गया। कैफियत में वेटिंग सीट का टिकट मिला था पर बाद में कन्फर्म हो गया। कैफी आज़मी के नाम पर चलने वाली इस ट्रेन में पुरबिए भरे रहते हैं। दिल्ली से आज़मगढ़ तक के लिए कोई ट्रेन हो इसके लिए कैफी ने ही नहीं शबाना ने भी बहुत कोशिश की थी। उन्ही की कोशिशों की देना है यह ट्रेन। खैर, सीट खोज-खाजकर बैठा। ट्रेन में जल्दी सोने
की मेरी आदत है। सुबह जब जब आंख खुली तो ट्रेन शाहगंज पहुंच चुकी थी. इसके बाद तो त्रेन जैसे ठिठक-ठिठककर चलने लगी। ऐसा हमेशा ही होता है. लोग अपनी सुविधा के अनुसार चेन पुलिग कर ट्रेन से उतर लेते हैं. ऐसे स्थिती में घर पहुँचने की अधीरता इतनी ज्यादा होती है कि ट्रेन एक पल के भी रुके तो कोफ्त होने लगती है। पर उतरने वाले भी क्या करें उन्हें भी तो जल्दी होती है. मैं यही सब सोच ही रहा था कि मेरे बगल वाली सीट पर बैठे एक लड़के ने अपने सहयात्री से कहा, अरे भौजी ऊख छीलत हईं. फ़िर क्या था. ट्रेन रुक गयी. दोनो झोला- मोटरी लिए उतर गये. जब तक हमारी ट्रेन फ़िर से आगे बढ़ती वे दोनों अपनी भौजी के पास पहुच चुके थे. हंसी-मजाक शुरू हो चुका था. मेरी ही तरह कई लोग उन्हे देख रहे थे, घर पहुंचने की जल्दी भूलकर लोग मुस्कराने लगे थे.

Sunday, January 6, 2008

उसी बस वाली लड़की के तमाचे की आवाज़ होगी

बहुत दिनों ब्लोगिंग से दूर रहाइस बीच बहुत महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं जिन पर लिखने का मन हैपर सबसे पहले अपनी कविता बस में लड़की पर अमर उजाला की सजग पत्रकार शाश्वती के विचार आप तक पहुँचा रहा हूँ
बस में लड़की और विशेषकर दिल्ली के बस की लड़की की कहानी कुछ-कुछ वैसी ही है, जैसा आपने लिखा है। पूरी तरह से इसलिए नहीं क्यों कि जिस तरह ब्लू लाइन की जगह है कपैसिटी बस ले रही हैं, ठीक वैसे ही यहाँ की लड़कियाँ भी बदल रही हैं। क्यों कि बस की रेलमपेल और धक्का -मुक्की में कोई उसके कुल्हे पर हाथ रखता है, तो वह उएसे सुख में सिहरने की जगह अपने चांटे से सिहरा देने और कान लाल करने की छमता रखती हैं। मेरी इस बात को फेमिनिस्म से जोड़कर देखने की जगह महिलाओं द्वारा अपनी रक्षा खुद कर सकने, अश्लील हरकत पर समाज की चिंता किए बिना प्रत्रिक्रिया करने की बढ़ती क्षमता के साथ देखें तो बात को बेहतर समझा जा सकता है। दरअसल, बस में किसी पुरुष द्वारा धक्का देने, देह छूने की कोशिश करने से उसका मन पहले भी लिजलिजा हो जाता था, पर शायद हिम्मत जवाब दे जाती थी।
तो जनाब, अगली दफा जब दिल्ली की सड़कों पर भीड़ भरी बस में किसी लड़की की गुस्से से चीखने या तमाचा रसीद करने की आवाज़ सुने, तो हैरान न हों, वह उसी बस वाली लड़की के तमाचे की आवाज़ होगी, जो किसी पुरुष के छूने पर बस से बाहर झांकने या चुप होकर उसे सहने की बजाये करारा जवाब दे रही होगी।
जो मैं कहना चाहता हूँ-
शाश्वती यह सच है कि आज लड़कियां ज्यादा सजग हैं और सक्षम भी। उनकी मजबूती आश्वस्त करती है। पर मेरी चिंता कुछ दूसरी है।जिस समाज में ताकत सुरक्षा की गारंटी हो उसे सभ्य समाज कैसे कहा जा सकता है। सारी तरक्की के बावजूद हम ऐसे समाज में जी रहे हैं जिसे शायद अभी भी स्त्रियों का सम्मान करना सीखना है। अभी नए साल पर मुम्बई या पटना में क्या हुआ? स्त्रियों के अपमान या उन पर होने वाले अत्याचार तब तक ख़त्म नहीं होंगे, जब तक हम उनका सम्मान करना नहीं सीखते। हमें लड़कियों की तरह रोना या चूडियाँ पहन लो जैसे मुहावरे भूलने होंगे। लड़कियां बदलें और समाज की सोच भी। बात तो तब बनेगी।