Saturday, January 26, 2008

अरे भौजी ऊख छीलत हईं

आज़मगढ़ से दिल्ली में पढाई करने आया और यहीं रोटी- रोज़गार का जुगाड़ हो गया। पर अपने घर- गांव की याद तो कचोटती ही रहती है। घर जाने का मौका मिले तो मन उमंग से भर जाता है। इस बार घर जाने का प्लान तो बहुत पहले ही बन गया था, पर आदत के अनुसार टिकट कटवाने में आलस कर गया। कैफियत में वेटिंग सीट का टिकट मिला था पर बाद में कन्फर्म हो गया। कैफी आज़मी के नाम पर चलने वाली इस ट्रेन में पुरबिए भरे रहते हैं। दिल्ली से आज़मगढ़ तक के लिए कोई ट्रेन हो इसके लिए कैफी ने ही नहीं शबाना ने भी बहुत कोशिश की थी। उन्ही की कोशिशों की देना है यह ट्रेन। खैर, सीट खोज-खाजकर बैठा। ट्रेन में जल्दी सोने
की मेरी आदत है। सुबह जब जब आंख खुली तो ट्रेन शाहगंज पहुंच चुकी थी. इसके बाद तो त्रेन जैसे ठिठक-ठिठककर चलने लगी। ऐसा हमेशा ही होता है. लोग अपनी सुविधा के अनुसार चेन पुलिग कर ट्रेन से उतर लेते हैं. ऐसे स्थिती में घर पहुँचने की अधीरता इतनी ज्यादा होती है कि ट्रेन एक पल के भी रुके तो कोफ्त होने लगती है। पर उतरने वाले भी क्या करें उन्हें भी तो जल्दी होती है. मैं यही सब सोच ही रहा था कि मेरे बगल वाली सीट पर बैठे एक लड़के ने अपने सहयात्री से कहा, अरे भौजी ऊख छीलत हईं. फ़िर क्या था. ट्रेन रुक गयी. दोनो झोला- मोटरी लिए उतर गये. जब तक हमारी ट्रेन फ़िर से आगे बढ़ती वे दोनों अपनी भौजी के पास पहुच चुके थे. हंसी-मजाक शुरू हो चुका था. मेरी ही तरह कई लोग उन्हे देख रहे थे, घर पहुंचने की जल्दी भूलकर लोग मुस्कराने लगे थे.

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

स्वागत है!

भौजी को भी ऊंख छिलने के काम से हटाकर चिट्ठाकारी में लगाइये।