Friday, December 21, 2007

बस में लड़की



भीड़
के बहाने
भीड़ से बचाकर
उसके कूल्हे पर हाथ धरता हूँ
वह सिहरती है
मेरी कनपटियां सुर्ख हो जाती हैं
बस की गति और विराम के साथ
नींद भी शामिल है मेरे षडयंत्र में
छूता हूं उसे बार-बार
छूने से बचने का ढोंग रचते हुए

सिमटती है
दुबक जाती है
खिड़की से देखती है बाहर
मोबाइल पर पढ़ती है कोई पुराना मैसेज
रिंग करके काटती है बार-बार
घूंट-घूंट पीती है गुस्सा
बस में लड़की

Sunday, December 16, 2007

उम्र अठारह महीने, शौक सिगरेट

पाजामे का नाडा बाँधने की तो बात ही छोड़िए. जनाब ठीक से तुतलाकर बोल भी नहीं सकते, लेकिन सिगरेट का धुआं ऐसे उड़ाते हैं कि बड़े से बड़े सिगरेट के शौकीन उन्हें गुरू मान लें. जनाब शोहरत भी खूब बटोर रहे हैं.16 दिसंबर के अमर उजाला मे उनकी खबर फोटो के साथ छपी है. मुरादाबाद सम्भल के फ़तेहउल्ल्ला सराय मे रहने वाले रिजवान की उमर सिर्फ़ 18 महीने है. उनकी उम्र के बच्चे खिलौने लेने की ज़िद करते हैं, लेकिन जनाब को सिगरेट न मिले तो चीख-पुकार मचाने लगते हैं. इस लिए घर वाले उनकी बीड़ी-सिगरेट उनके पास ही रखते हैं, ताकि उन्हें जब भी तलब मह्सूस होइत्मीनान से सुटटा मार सकें. सुबह उठते ही वह दूध की बोतल की जगह सिगरेट के लिए मचलने लगते हैं. कोई पास आये तो बीड़ी की तलाश में उसकी जेबें टटोलने लगते हैं. वे एक के बाद एक कई सिगरेट पी सकते हैं. ना ही सिगरेट का स्वाद उन्हें खराब लगता है और न ही सिगरेट पीते हुए उन्हें खांसी आती है.
ज़ाहिर है यह आदत वे पेट से सीखकर नहीं आये होंगे.घर -परिवार के ही किसी महानुभाव ने उन्हें यह लत लगायी होगी. यह गंदा काम चाहे जिसने भी किया हो.उसकी सज़ा क्या होगी. क्या उसे कोई सजा मिलेगी?

Friday, December 14, 2007

वे गाली पर भी अपना अधिकार चाहते हैं

पूनम अमर उजाला में फीचर विभाग में काम करतीं हैं, वैचारिक बहस में यकीन रखने वाली पूनम अपनी बातें बहुत स्पस्ट रुप से कहने के लिए जानी जाती हैं। मेरे चिट्ठे जरा जुबान पर लगाम दीजिए हुजूर पर उन्होंने अपनी टिप्पणी कुछ इस तरह की है-
ब्रजेश जी आपका यह लेख और भी आकर्षक व रोचक हो जाता, यदि आप इसमे सभ्य समाज के सभ्य लोंगों द्वारा बड़ी सहजता के साथ बोली जाने वाली गालियों का जिक्र भी करते। खैर, आपकी तरह मैं भी इन शब्दों के प्रयोग से बचते हुए अपनी बात कहूंगी।
गालियाँ न केवल सिर्फ औरतों पर बनी हैं , बल्कि पुरुषों द्वारा दी जाने वाली गलियां पुरुष वादी मानसिकता और उसके पुरुष होने के दंभ को भी दर्शाती हैं। गालियों के मतलब पर ही ध्यान दें , तो लगता है कि ये भी महिलाओं के अस्तित्व को देह तक सीमित कर देने की सोच की ही उपज है। दो लोगों की लड़ाई शुरू नहीं कि गालियों का सिलसिला शुरू हो जाता है और वे बेकसूर अपमानित होती चली जाती हैं। महिला की देह न हुई जैसे अखाडा हो गया अपनी कुंठा और भड़ास निकालने का। कितना कॉमन सा शब्द बन गया है साला! लोग बडे प्यार से आपसी बातचीत में इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं। दूसरे की बहन कितनी सहजता से अपनी बन जाती है। गालियों की सहजता में इससे अधिक शर्मनाक क्या होगा जब बाप बेटे पर गुस्सा होकर बहन की गाली या भाई -भाई आपस में माँ बहन की गाली देते हुए पाए जाते हों।
जिस समाज में दूसरे व्यक्ति को अपमानित करने के लिए माँ -बहन की गाली दी जा रही हो, वहाँ यत्र नर्येस्तु पूज्यन्ते ... कहा जाए तो बड़ा विरोधाभास लगता है। यह लिखने और कहने की ज़रूरत नहीं कि सदियों से चली आ रही इन गालियों का चेतन और अवचेतन मन पर कितना गहरा असर होता है। जिस समाज में एक लडकी किसी को जिल्लत या अपमानित करने का माध्यम हो, तो कैसे माना जा सकता है कि उस समाज में लडकी का जन्म किसी परिवार के लिए ख़ुशी का सबब होगा।
एक बात और लिखना चाहूँगी कि गालियाँ देने का अधिकार भी शायद पुरुष अपने पास ही रखना चाहते हैं। जब कोई लडकी लड़कों को उन्हीं की जुबान में मोटी-मोटी गालियों में जवाब देती है, तो वह लोगों की नज़रों में बद्तमीज बदचलन,और न जाने क्या-क्या बन जाती है।

Sunday, December 9, 2007

ज़ुबान पर लगाम लगाइए हुज़ूर!

दोपहर में आफिस से निकल कर ठेले की चाय पीने जरूर जाता हूँ। नाली के किनारे खड़ा ठेला, भिनभिनाती मक्खियाँ, गाड़ियों के गुजरने से उड़ती धुल और गालियों से गूंजते वातारण में चाय की चुस्की का जो मजा है, वो आफिस की मशीन वाली चाय में कहा? उस दिन भी अपने दोस्त के साथ ठेले वाली चाय का आनंद उठा रहा था कि कानों में आवाज़ पड़ी-... दरअसल आप बहुत चूतिये हैं।
ये दो दोस्तों के बीच हो रही बातचीत का एक टुकडा था, जो मेरे कानों में पड़ा था। इतने सयंत स्वर में, कान्वेंटई लहजे और इतने आदर के साथ गाली दी गई थी कि मैं सोचने पर मजबूर हो उठा। गालियाँ हमारी जुबान के साथ इस
कदर जुडी हुई हैं कि कब मुँह से निकल जातीं हैं पता ही नहीं चलता। किसी से गुस्सा हों और गाली न दें, ऐसा हो सकता है भला! कुछ लोगों के लिए यह तकियाकलाम है, तो कुछ लोग प्यार जताने के लिये गालियों का उपयोग करते हैं, मैने एक औघड़ बाबा के बारे में सुना है,जो गालिया देकर आशिर्वाद देते थे। कभी-कभी हम मनोरजन के लिये भी गालियो का यूज करते हैं। इलाहाबाद के हिन्दु हास्टल मे जब लाईट चली जाती थी, तो दोनो ब्लाक मे गालियो का मुकाबला होता, जब तक लाईट नही आती हम एक दूसरे को गालिया देकर अपना मनोरन्जन करते थे। यहां तक कि हममें नई-नई गाली गढने की होड़ लगी रह्ती थी।
अपने देश मे तो होली जैसे त्योहार पर ही नहीं, शादियों मे भी गालियां गाने की रही है।शादियो मे तो लोग एक दूसरे के नाम की परचियां गीत गाने वाली महिलाओं के पास भेजते थे, ताकि वे उनका नाम लेकर गाली दे। जिनका नाम वे नहीं जान पातीं, उनको नीली शर्ट, लाल शर्ट वाले कह्कर गाली देती. जिन लोगों को बारात में गाली नही मिलती उन्हे लगता जैसे बारात मे उनकी खातिर ही नही की गयी। लेकिन जब मैं बात-बात पर गलियां बकता था और अब जब कि कभी-कभार मुंह से गलियां निकल ही जाती हैं। मैं अकसर सोचता हूं कि हर गाली की चपेट में कोई स्त्री या जानवर ही क्यों आता दुनिया के किसी भी देश में गालियां जानवरों के नाम और औरतों के अपमान से ही क्यों जुड़ी हुई हैं? अगर गालियां स्त्रियों का अपमान करती हों, तो क्या हमें अपनी जुबान पर लगाम लगाने की जरूरत नहीं .

Monday, December 3, 2007

तुम किससे हारी तसलीमा ?

तुम हार गयी तसलीमा। तुम्हारे लिखे ने उतना छाप नहीं छोडा था , जितना तुम्हारे जुझारूपन ने। कठमुल्लों के फतवे सुने, देश छोड़ना पड़ा पर ना तो तुम झुकी न तुम्हारी कलम। क्या तुम लड़ते- लड़ते कमज़ोर हो गयी तसलीमा ?
यकीन नहीं होता। फिर क्या हुआ तसलीमा ? दुनिया भर घूमने के बाद तुमने शरण लेने के लिए तुमने वह देश चुना, जो तुम्हारा ही था, ४७ की दीवार बनने के पहले। वही बोली - बानी वही मच्छी-भात, तुम्हारा प्यारा कोलकाता। पर धर्मनिरपेक्षता की पैरोकार माकपा सरकार के लिए तुम खतरा बन गयी। अगर तुम कोलकता की शांति के लिए खतरा थी, तो बुद्ध देव बाबू क्या हैं? तुम कठमुल्लों से तो लड़ सकती थी पर धर्मनिरपेक्षता के ढोंग से नहीं।
एक तरफ गुजरात की प्रयोगशाला के वैज्ञानिक हैं, तो दूसरी तरफ कठमुल्लों की भीड़। तुम इनके खेल का मोहरा न बन जाओ एक भय यह भी तो रहा होगा!
तुमने कहा मैं भारत को खोना नहीं चाहती, पर भारत तो कबका खो चुका है। उदार, सहिष्णु विशाल हृदय वाला भारत तो कहीं खो गया है। अपने सपनों के भारत को खोज न पाने की निराशा में तो ये कदम नहीं उठा लिया?
तुम किस से हारी तसलीमा?