Monday, December 3, 2007

तुम किससे हारी तसलीमा ?

तुम हार गयी तसलीमा। तुम्हारे लिखे ने उतना छाप नहीं छोडा था , जितना तुम्हारे जुझारूपन ने। कठमुल्लों के फतवे सुने, देश छोड़ना पड़ा पर ना तो तुम झुकी न तुम्हारी कलम। क्या तुम लड़ते- लड़ते कमज़ोर हो गयी तसलीमा ?
यकीन नहीं होता। फिर क्या हुआ तसलीमा ? दुनिया भर घूमने के बाद तुमने शरण लेने के लिए तुमने वह देश चुना, जो तुम्हारा ही था, ४७ की दीवार बनने के पहले। वही बोली - बानी वही मच्छी-भात, तुम्हारा प्यारा कोलकाता। पर धर्मनिरपेक्षता की पैरोकार माकपा सरकार के लिए तुम खतरा बन गयी। अगर तुम कोलकता की शांति के लिए खतरा थी, तो बुद्ध देव बाबू क्या हैं? तुम कठमुल्लों से तो लड़ सकती थी पर धर्मनिरपेक्षता के ढोंग से नहीं।
एक तरफ गुजरात की प्रयोगशाला के वैज्ञानिक हैं, तो दूसरी तरफ कठमुल्लों की भीड़। तुम इनके खेल का मोहरा न बन जाओ एक भय यह भी तो रहा होगा!
तुमने कहा मैं भारत को खोना नहीं चाहती, पर भारत तो कबका खो चुका है। उदार, सहिष्णु विशाल हृदय वाला भारत तो कहीं खो गया है। अपने सपनों के भारत को खोज न पाने की निराशा में तो ये कदम नहीं उठा लिया?
तुम किस से हारी तसलीमा?

4 comments:

सचिन श्रीवास्तव said...

ब्रजेश जी आपकी बेचैनी जायज है. लेकिन तसलीमा हारी नहीं है. वह कहीं नहीं गई है. वह भारत में ही है, उस भारत में जिसे तसलीमा ने अपनी आंखों से देखा है, जो हमारे आपके दिलों में बसा है. बुद्धदेव और नरेंद्र मोदी के भारत में तो तसलीमा की जगह थी भी नहीं वहां तो बस उमाएं रह सकती हैं ममताएं खेल सकती हैं सत्ता के खेल और जयललिताएं हो सकती हैं साडियों में लिपटी.
दोस्त तसलीमा अब भी यही है. वह लिख रही है उन्ही के खिलाफ जो चोट खाकर और भी खतरनाक हो गए हैं

अनुराग मिश्र said...

Brajesh ji apne bilkul sahi kaha, Akhir kisi bat ko jyo ka tyo keh sakne ka hunar rakhne wali tasleema ko aisa kadam uthana pada. wo bhi aise mulk me jaha kisi bhi bat ke liye koi dayare nahi bane hai, paribhasahaye sankeerna nahi hai.

blueclouds-silence said...

no state should have right to reject tasalima, reader would decide itself that what one wants to read and what wants to rejact...that is very dangerous from the part of our state...and very shameful for our tolerant society...still tasalima should be more sensitive in her writings, should have more knowledge of references of history..one expects more responsible attitude and maturity from a writer..teenage enthusiasm suits to teenagers only...

Anonymous said...

भाई ब्रजेश, तसलीमा को लेकर आपकी चिंता वाजिब हैं, आज साहित्य व कलाप्रेमियों के लिये कोड आफ कन्डक्ट बनाया जा रहा है, उन्हें सिखाया जा रहा है कि क्या करे क्या न करे। पर बात की तह में जाये बगैर भारतीय वामपंथ खासकर माकपा को गरियाने का एक फैशन सा बन गया है। लेखको, कवियो, कलाकारों पर हमलो का सबसे ज्यादा भुग्तभोगी माकपा ही रही है, हम आज भी साथी सफदर हाशमी की हत्या को भुला नहीं पाये है। आज भी माकपा देश में गरीबो की आवाज है इसे बंद करने के जी तोड प्रयास किये जा रहे है। प्रिय साथी कारपोरेट मिडिया के बुने जा रहे मकडजाल से बाहर निकलकर सरलीकरण के स्थान मुद्दो की तह तक जाये फिर आलोचना करे, हमारा वादा है हम इसे खुशी खुशी स्वीकार करेंगे व गलती होने पर सुधार भी करेंगे।
शुभकामना के साथ