Friday, February 1, 2008
आज़मगढ़-1
आज़मगढ़! बहुत बदल गया यह शहर. हमारे बचपन मे यह हरा-भरा और खूबसूरत शहर हुआ करता था. पर आज़कल इस शहर में भीड़ बढ़ती जा रही है.जब भी घर जाता हूं, इसे और भी शोरगुल और भीड़ से भरा हुआ पाता हूं. इस बार जब रिक्शे पर बैठकर स्टेशन से घर की ओर चला, तो सड़क पर कुछ ज्यादा ही शोरगुल दिखा.टौंस पर बने पुल पर नए किस्म की लाइटें लगी हुई थीं. उस बड़े से मैदान जो अग्रेज़ो के ज़माने में पोलो ग्राउड हुआ करता था, में चल रहा आज़मगढ़ महोत्सव समाप्त हो चुका था. गिरजाघर चौराहा का नाम अब न्याय चौराहा हो चुका था. आज़मगढ़ महोत्सव इस बार काफ़ी भव्य रहा और हंगामेखेज भी. विवेकानंद की तस्वीर स्टेज पर रखने और स्कूली बच्चों द्वारा खेले जा रहे नाटक में सीता के जींस-टाप पहनने को लेकर खूब बवाल मचा. देश के दूसरे हिस्सों की तरह यहां भी लोग धार्मिक रूप से काफ़ी संवेदनशील हो चुके हैं. हर बार की तरह इस बार भी टौंस नदी के घाट पर दोस्तों के साथ देर तक बैठा रहा. नाव की सैर की. नदी में नहाना भी चाहता था लेकिन अब टौंस का पानी इतना गदा हो चुका है कि नहाने लायक नहीं रहा. टौंस गंदी और छिछ्ली होती जा रही है. हमारे बचपन में टौंस के किनारे खेती होती थी अब इसके किनारे पर घर बनते जा रहे हैं. यही हाल रहा तो कुछ सालों में यह नदी गंदे नाले में बदल जाएगी. काश हम अपनी नदी तालाबों के प्रति भी थोड़े संवेदनशील हो पाते.
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7 comments:
ब्रजेश जी मैने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि मुझे ब्लॉग पर आजमगढ़ के बारें में पढ़ने को मिलेगा। आपका प्रयास काफी सराहनीय और इसे जारी रखें। आजमगढ़ में हमारा पुश्तैनी मकान है रेल्वे स्टेशन के पास।
आशीष महर्षि
प्यारे भाई, आजमगढ़ के बारे में पढ़कर अच्छा लगा। अभी तो हाल यह है कि जब भी घर (कप्तानगंज बाजार के पास मनियारपुर गांव) जाता हूं, एक-दो दिन के लिए अपने इस शहर का कोई न कोई कोना-अंतरा छानने का मौका भी निकाल लेता हूं। मेरे लिए इस शहर की यादें इसके बाजारों की नहीं, मूलतः तीन तरफ से इसे घेरे हुए नदी की ही यादें हैं। टौंस अब घिर रही है बुरी तरह से। लेकिन शुक्र है, इस नदी की बनावट ही सांप की तरह कुछ ऐसी लहरियादार है कि चाहकर भी लोग इसपर कब्जा नहीं कर पाएंगे- और जो करेंगे, देर-सबेर किसी न किसी बारिश के सीजन में इसी नदी के पेट में विश्राम करते पाए जाएंगे।
भाई क्या बात है... वैसे मेरे अंदर भी आज़मगढ की यादें अभी भी ताज़ा हैं,टौस नदी कॊ हम तमसा नदी कहा करते थे...और एक बात और थी मैं ८१ से ८३ पर वहां था और उस समय वहां का रंगमंच बहुत बेहतर तरीके से हो रहा था... साल में एक टियेटर फ़ेस्टीवल होता था जहां बेहतरीन नाटकों का प्रदर्शन होता था...बादल सरकार का नाट्क..भोमा, स्पार्ट्कस, जुलूस,पगला घोड़ा,शंकर शेष का नाट्क पोस्टर...मणि मधुकर का नाटक रस गंधर्व..वहीं के कवि श्रीराम वर्मा की कविताओं पर आधारित नाट्क नन्हें कन्धे नन्हें पैर हमने किया था,बादल सरकार के वर्कशॉप से मैने भी नाटक की शुरूआत की थी,आज भी किसी ना किसी रूप में आज़मगढ़ मेरे अंदर ज़िन्दा है,याद दिलान के लिये बहुत बहुत शुक्रिया
माजिद आज़मी,
महुआ चैनल में एक इंटर्न के रूप में कार्यरत हूं। स्वाभाव में सामाजिक। लोगों से मिलना जुलना अच्छा लगता है। घर से बाहर दिल्ली में रह कर अपने शहर को और उसके दुख दर्द को महसूस कर रहा हूं। हालाकि चंद रोज़ से बिगड़े हालात पर मैं बहुत आहत हूं। सबसे जो बड़ी बात जो मैने महसूस की है हिन्दुस्तान के तमाम लोगों में वो ये की..जैसे ही उन्होने मुझसे ये जानने की कोशिश की मैं कहां से हूं तो मैं बड़े फख़्र से कहता कि आज़मगढ़ से..इतना सुनने के बाद जैसे उनके चेहरे पर प्रश्नचिन्ह बन जाता है..मेरे आज़मगढ़ से ताल्लुक रखने वालों.. लोगों के चेहरे का यही सवाल हमारे लिए एक बड़ा सवाल है..हम सभी को इस सवाल का जवाब देना है..आज ये सवाल हमारे आज़मगढ़ के लिए किसी खास समुदाय या मज़हब का नहीं बल्कि सभी आज़मगढ़ के वासियो के लिए है..इसमें कोई शक नहीं कि हमने विपरीत परिस्थियां होने के बावजूद हमने तरक्की की है..जी हां मै कहना चाहता हू कि यूपी का सबसे बड़ा बंजर हिस्सा आज़मगढ़ में है,रोज़गार का कोई साधन भई नहीं है..इतना ही नहीं शिक्षा का कोई अच्छा और उपयुक्त माध्यम भी नहीं है..इसके बावजूद 56 प्रतिशत शिक्षित होना खासकर महिलाओं की शिक्षा का स्तर भी बढ़ना ये आज़मगढ़ के लिए काबिले तारीफ है..आज़मगढ़ विद्वानों की धरती है अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए जानी जाती है..हमारी यही शिनाख्त है लेकिन चंद लोगो से जोड़कर देखना पूरे आज़मगढ़ को ग़लत है..बहरहाल बहुत कुछ कहना सुनना है वक्त की कुछ कमी है..खुदा हाफिज़,नमस्कार
बढ़िया लिखा मामा जी..इसे साभार आज़मगढ़ ब्लॉगर्स एसोसिएशन : Azamgarh Bloggers Association पर दे रहे हैं.
बहुत ही विचारणीय पोस्ट... ... आजमगढ़ के बारे में कुछ पढकर अच्छा लगा....टौंस नदी का हाल तो बहुत ही बुरा है. लोग जागृत नहीं और सरकार को इससे कोई सरोकार नहीं.
सृजन शिखर पर--इंतजार
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