तीन-चार घटनाओं के बारे में बात करना चाहता हूं। ये घटनाएं हमारे समाज सरकार और राजनीति के उजले-काले पहलुओं से हमें परिचित कराती हैं। इन घटनाओं के बारे में आपने पहले भी सुना होगा पर एक बार दोहराना जरूरी समझता हूं ताकि सनद रहे-
चालः धन-संगह के लिए दिल्ली में सरकार एमसीडी के पन्द्रह प्राइमरी स्कूलों को नीलाम करने जा रही है। इन स्कूलों की जमीन पर माल और दुकानें बनाई जाएंगी। सरकार की योजना कुल साठ स्कूलों के कैंपस को नीलाम करने की है।
यह हालत तब है जब दिल्ली में तीन से पांच लाख बच्चे स्कूल से वंचित हैं।
चेहराः शांति सुदराजन शायद यह नाम आपके जेहन में अब नहीं होगा। ईट भटठा पर काम करने वाले माता-पिता की इस संतान ने दोहा एशियन गेम में सिल्वर मेडल जीता था। पर लिंग परीक्षण में असफल हो गई। अपमान का घूंट पीने से बेहतर मर जाना है यह सोचकर नौ महीने बाद उसने एक दिन आत्महत्या की कोशिश की पर बचा ली गई। अब सदमे से उबर कर वह फिर ट्रैक पर लौट आई है। इस बार खिलाड़ी नहीं प्रशिक्षक के तौर पर। उसने ओलंपियन स्पोर्ट्स एकेडेमी खोली है। और जुट गई है नए चैंपियन तैयार करने में।
क्या आपने ये खबर सुनी है। अगर हां तो जरूर आपने उसके जज्बे को सलाम किया होगा।
चरित्रः दिल्ली बीजेपी आफिस में किसी ने दो करोड़ साठ लाख रुपये चुरा लिए। लगता है पार्टी ने तिजोरी की चाभी ही किसी चोर को सौंप रखी थी। राजनाथ सहित सारे लोग मामले को दबाने की कोशिश में लगे हैं। अंदर ही अंदर मामले का पता लगाने के लिए निजी जासूस की मदद ली जा रही है।
देश चलाने का दावा करती है यह पार्टी। जरा सोचिए अगर इनके हाथ में देश की तिजोरी हो तो क्या होगा
नोएडा में एक लड़की के साथ किकेट खेल कर आ रही टीम ने बलात्कार किया।
शर्म है वे इसी समाज के हिस्से हैं।
आतंकी हमले के अलावा भी देश पर अनेक संकट हैं क्या नहीं हैं
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5 comments:
ऐसे ही अनेकों संकट ही संकट हैं.
बहुत खूब बृजेश जी आपने तो कमाल कर दिया खबर क्या खबर का मुरब्बा बना कर पेश कर दिया... लगे रहो... बधाई....
इतनी बेशर्मी की बाते लेकिन फ़िर भी इन्हे शर्म नही आती....
धन्यवाद
ब्रजेश भाई, बिल्ली के गले में घण्टी तो हमीं को बांधनी होगी। यह सच है कि हममें से बहुत लोगों के अंदर लाखों की नौकरी पाने का सपना रहता है लेकिन यह भी तो समझना होगा कि उन चन्द नौकरियों तक कुछ लोग ही पहुंचेंगे। और जो पहुंचेंगे जरूरी नहीं कि वो सिर्फ अपनी काबिलियत के दम पर पहुंच जायें। इसलिए फौरी तौर पर ये सवाल जमीनी पत्रकारिता करने वाले हमआप जैसे हजारों युवा पत्रकारों के अधिकारों का है। अगर इस पेशे में जिंदगी गुजारनी है तो यह सोचना पड़ेगा कि सर उठा कर नौकरी करेंगे या जैसे चल रहा है वैसे स्वीकार कर लेंगे, वैसे मीडिया में हम जैसे पत्रकारों की हालत पर मोहल्ला में समरेंद्र ने लिखा था, शायद आपने भी पढ़ा होगा। मेरा मानना है कि हमें भागना नहीं चाहिए और एकजुट होकर डटकर रहना चाहिए। आपका क्या ख्याल है्...
good post
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